Thursday 14 May 2015

नमस्कार, मै श्री देव दत्त प्रसून जी का बेटा राहुल गौरव दत्त आज आप सभी का अपने स्वर्गीय पिताजी की तरफ से इस ब्लॉग के माध्यम से आप सभी का आभार व्यक्त करता हूँ और आशा करता हूँ कि जिस प्रकार आप सभी पिताजी के साथ सक्रिय रूप से इस ब्लॉग से जुड़े रहे उसी प्रकार कृपया आगे भी जुड़े रहिएगा | मै स्वयं कोई  लेखक नहीं हूँ पर मै सदैव इस ब्लॉग से जुड़ा रहूँगा और पिताजी की उन लिखित कवितायों को समय समय पर आपके समक्ष प्रस्तुत करता रहूँगा |
आप सभी को एक और सूचना देते हुए मुझे अत्यंत हर्ष और गर्व की अनुभूति हो रही है कि बहुत जल्द आप सभी के समक्ष पूज्य पिताजी द्वारा कृत दोहा गीतों का एक अनूठा संकलन " झरी नीम की पत्तियाँ  ' एक पुस्तक के रूप में प्रस्तुत होने जा रहा है जो वर्तमानं में मुद्रण हेतु गया हुआ है ,आप सभी से विनम्र निवेदन है कि इस पुस्तक के विमोचन समारोह के समय आप सभी उपस्थित होकर आपने आशीर्वाद से मुझे अनुग्रहित करे और समारोह कि सफलता के साक्षी बने | आप सभी को समारोह कि तिथि में बहुत जल्द अवगत करवा दूंगा |
किसी भी प्रकार के त्रुटि के लिए क्षमाप्राथी,आप सभी के स्नेह एवं आशीर्वाद की प्राथना के साथ अभी बस इतना ही |
,आपका अपना राहुल गौरव दत्त
मोबाइल: 9756955991

Thursday 27 December 2012

हृदय में जली हुई ज्वाला !(एक विरोधाभास) (दिनांक १६दिसंबर २०१२ को घटित सामूहिक बलात्कार की समाज को करवट बदल कर जन-क्रान्तिको मजबूर कर देने वाली घटना के संदर्भ में विशेष रचना




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एक यथार्थ जो सबने देखा,सूना,पढ़ा ! 
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बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||

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‘पीड़ा भरी कराह’ उठ रही, ‘दर्द भरी’ है ‘सिसकी’ |

ऐसी, ‘अमन की देवी’ पर, ‘बदनज़र’ पड़ी है किसकी ??

‘धीरे धीरे ‘आँसू’ रिसते, ‘नयन’ हो गये गीले-

‘मानवता’ को ‘दर्द’ हुआ ज्यों, दुखा हो कोई ‘छाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||१||

 

‘लाज की हिरणी’ तड़फ़ तडफ कर, लेती ‘अन्तिम साँसें’ |

डसने को ‘वासना की नागिन’, आई इसे कहाँ से ??

‘संयम’ टूट गया, ‘धीरज’ ने अपनी ‘करवट’ बदली –

लिख न जाये ‘इतिहास’ में ‘खूनी पृष्ठ कोई काला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||२||

 

अब नारी की ‘सहन-शक्ति’ की ‘बन्धन-डोरी’ टूटी |

‘अबला’ है वह, ‘बात पुरानी’ हुई है सारी झूठी ||

पाकर ‘अतिशय चोट’ हिली है इस ‘धरती’ की काया’-

लगता है, अब ‘प्रलय’ यहाँ पर निश्चय आने वाला ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’, ’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘अग्नि’ को  पाला ||३||

 
‘आग के दरिया’ ने सींचे है, ‘खिले बगीचे सारे’ |

‘चिनगारी’ बन गयीं हैं ‘कलियाँ’, औ “प्रसून” ‘अंगारे’ ||

इस ‘विकास के दौर’ में अन्तर ‘बात’ समझने में है –

हम ने इस को ‘लपट’ कहा है, तुमने कहा ‘उजाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||४||

 

‘पुरखों ने जो बाग  यहाँ थे सुन्दर कई लगाये |

इनमें धोखे से ‘विष वाले’, “प्रसून” कुछ उग आये ||

इनके ‘ज़हरीलेपन’ से हम कितने हुये विकल हैं-

जिसने इनका ‘स्वाद’ चखा है, ‘काल’ का हुआ ‘निवाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||५||


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